आनि सँजोग परै , भावी काहू सौं न टरै। कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥ मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै। तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥ रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै। मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥ अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै। द्रुपद-सुता कौ राजसभा,दुस्सासन चीर हरै॥ हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै। जो गृह छाँडि़ देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥ भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै। सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥
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