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Monday, May 7, 2012

कान्हा के नाम चिठ्ठी - तेरा प्रेम -चंद्रानी पुरकायस्थ (पिंकी)

 मैं अकेली थी , अकेली हूँ  और सायद अकेली ही रहूंगी।
भीड़ में भी अकेली ।।
हर अपना, अपने होने का एहसास दिला कर खो जाता है. 
मैं सुनी गलियारे में झांकती , सोचती कोई किसी का अपना होकर भी ,
अपना नही ???
तभी तू  कानों  में मेरे हलके से कह जाता ,
हर पल , हर कदम  मैं साथ हूँ तेरे ।
मैं मोर पंख से छन  छन आती किरणों में ,
ढूंढ़ लेती  तुझे।
तू अपनी आँखों कि भाषा से 
हर बात कह जाता ।
मैं अँधेरे से डर जाती ,
तू बाति लेकर राह दिखाता.
हाँ , पता हैं मुझे ,
हर  पल तू साथ था, साथ है, साथ रहेगा।
प्रेम क्या है तुने ही तो सिखलाया ,
मैं संसार भर प्रेम  ढूँढती रही।
और तू प्रेम की धार बन ,
मन में ही बहता हुआ  नजर आया।

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