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Saturday, November 26, 2011

कान्हा के नाम चिट्ठी - प्रेम - चंद्रानी पुरकायस्थ (पिंकी )


कान्हा कई मिलेंगे जो तुझे दोष देते होंगे ,
राधे की सोच सोच तुझसे झगड़ते  होंगे .
तुझे निठुर और पत्थर कहते होंगे ,
मथुरा के  वैभबों में तू गोकुल को भूल गया ,
ये इल्जाम देते  होंगे .
किसने सोचा दुनिया के आँसु  पोछने के लिए ,
तुने अपनी आँखों में  सारे मोती पिरो लिए .
कितनी बार मैया और बाबा के लिए मन अकुलाया तेरा,
किसने हिसाब रक्खा,
कितनी बार तेरी आँखें गोप सखाओं को धुंड-धुंड ब्याकुल हो उठी .
कितनी बार अपने गाय-बछड़ो को याद कर कर तू बिलख उठा ,
कितनी कितनी  बार ब्रज के प्रान्तर,पहाड़, गलियाँ  और युमना,
सपनों में आकर तुझे जगाते रहें.
एक ख़ामोशी के अलावा किसने देखा?
एक तेरी बाँसुरी के सिवा किसने महसूस किया ?
राधा को तू कब भुला ,  तू तो हर पल  उसके साथ था ,
हा   भौगोलिक  दुरी थी , पर मन से कब तू  जुदा रहा .
तेरी मुरली की हर एक तान तो राधा को ही पुकारती  रही ,
रुक्मिणी सत्यभामा में भी तुने राधा का ही  स्मरण किया .
हर दुःख को सहते हुए तुने हस हस हर कर्तब्य को निभाया .
हे योगेश्वर,  तूने प्रेम का कुछ ऐसा योग लिया,
लोग तो प्रेम पर दुनिया लुटा  देतें हैं ,
तुने तो दुनिया के प्रेम में अपने आप  को ही लुटा  डाला .



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